फूलों की घाटी में बजता
कानफोड़ सन्नाटा.
बीच-बीच में यहाँ-वहाँ से
उभर डूबती चीखें
डस लेती लिप्सा की नागिन
जो पराग पल दीखें
आदमकद आकाश का
होता जाता नाटा.
नदियों-झीलों-झरनों में जा
डूब मरीं मुस्कानें
शोक-धुनों में बदल रही हैं
उत्सव- धर्मी तानें
संतूरी सम्मोहन टूटा
चुभता बनकर काँटा.
gaagar men saar... saras samyik geet hetu nadhaee.
ReplyDeleteबेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!!
Deleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (17-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/“ मँ” उफ़ ये बारिश और पुरसूकून जिंदगी ..........बुधवारीय चर्चा १३७५ !! चर्चा मंच <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!!
Deleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (17-07-2013) को में” उफ़ ये बारिश और पुरसूकून जिंदगी ..........बुधवारीय चर्चा १३७५ !! चर्चा मंच पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
हार्दिक धन्यवाद, आ. संजीव वर्मा "सलिल" जी. (divyanarmada.blogspot.in)
Deleteहार्दिक धन्यवाद, आ. शशि पुरवार जी.
Deleteबहुत सुमधुर कर्ण प्रिय गीत ,बधाई
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, आ. मंजुल जी.
Deleteसमसामयिक सच्चाई को बयां करता नवगीत..आपको बधाई आ शशीकांत जी..
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, आ. परमेश्वर फुंकवाल जी.
Deleteबहुत ही सुन्दर, समसामयिक और सार्थक गीत,
ReplyDeleteबधाई शशिकांत गीते जी।
हार्दिक धन्यवाद, आ. सुरेन्द्रपाल वैद्य जी.
Deleteअच्छा गीत है वधाई शशिकान्त गीते जी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, आ. जगदीश व्योम जी.
Deleteबहुत ही सुन्दर गीत है ....आज के हालात को कलात्मक शब्दों से बुना है
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, आ. संध्या सिंह जी.
Delete.
ReplyDeleteअति सुन्दर.
हार्दिक धन्यवाद, आ. वीरेश अरोडा़ जी.
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