Sunday 23 December 2012

जादू-कथा





भैया रे! ओ भैया रे!
है दुनिया जादू-मंतर की.

पार समुंदर का जादूगर
मीठा मंतर मारे
पड़े चाँदनी काली, होते
मीठे सोते खारे
बढ़ी-बढ़ी जाती गहराई
उथली धरती, खंतर की.

अपनी खाते-पीते ऐसा
करे टोटका-टोना
कौर हाथ से छूटे, मिट्टी
होता सारा सोना
एक खोखले भय से दुर्गत
ठाँय लुकुम हर अंतर की.

उर्वर धरती पर तामस है
बीज तमेसर बोये
अहं-ब्रह्म दुर्गंधित कालिख
दूध-नदी में धोये
दिग्-दिगन्त अनुगूँजें हैं मन
काले-काले कंतर की.

पाँच पहाड़ी, पाँच पींजरे
हर पिंजरे में सुग्गा
रक्त समय का पीते
लेते हैं बारूदी चुग्गा
इनकी उमर, उमर जादूगर
जादू-कथा निरन्तर की.

Saturday 22 December 2012

लोक अपना






आग पानी में
लगाने का इरादा
क्या हुआ.

वे तने मुठ्ठी कसे थे
हाथ सारे
तालियों तब्दील कैसे हो गए
जलती मशालों से उछलते
हौंसले भी
राजपथ की रोशनी में खो गए
और रोशनदान से
गुपचुप अंधेरा
है चुआ.

चट्टान- से संकल्प कल्पित
बर्फ वाले ढेंकुले- से
हैं अचानक गल बहे
और शिखरों पार से आती
हवाओं के भरोसे
ध्वज बिना फहरे रहे
लोक अपना
स्वप्न बनकर
रह गया फिर अनछुआ.


Friday 21 December 2012

ओ मेरे मन





ओ मेरे मन!
सागर से मन!
हिरना मत बन.

नेह नदी ढूँढे
दो बूँदें ही भारी
रेतीले रिश्तों की
छवियाँ रतनारी
उकसाए प्यास
रचे, पाँव-पाँव
कोरी भटकन.

मरूथल में तूने जो
दूब- बीज बोए
बादल से, खोने का
रोना मत रोए
हर युग में
श्रम से आबाद हुए
ऊसर, निर्जन.

-         शशिकांत गीते

फूलों की घाटी में






फूलों की घाटी में बजता
कानफोड़ सन्नाटा.

बीच-बीच में यहाँ-वहाँ से
उभर डूबती चीखें
डस लेती लिप्सा की नागिन
जो पराग पल दीखें

आदमकद आकाश का
होता जाता नाटा.

नदियों-झीलों-झरनों में जा
डूब मरीं मुस्कानें
शोक-धुनों में बदल रही हैं
उत्सव- धर्मी तानें

संतूरी सम्मोहन टूटा
चुभता बनकर काँटा.

Thursday 20 December 2012

बचपन के दिन





बचपन के दिन
और गाँव के
जाते नहीं भुलाए.

सरना काका की दुकान के
पेड़े, सेंव, जलेबी गुड़ की
बाड़ी वाले पीरू चाचा
बेर बीन देती वह बड़की
वह नरेन्द्र, वह भागचंद
चंचल सरोज और संध्य़ा निर्मल
गुल्ली- डंडा, गड़ा- गेंद की
अब तो मीठी यादें केवल
कांक्रीटों के जंगल के यह
केवल बहुत सताए.

छकड़े में या पैदल- पैदल
रेवा-तट बड़केश्वर जाना
माँ की उँगली पकड़ नहाना
रेती में कुदड़ाना, खाना
नीम तले खटरा मोटर का
युगों-युगों-सा रस्ता तकना
और निराशा की झाड़ी में
मीठे बेर यक-ब-यक पकना
खुशियों का यह
चरम लौटकर
फिर आए न आए.

राह आत्म दाह की



 

ईसा के हाथ कटे
शोहरत है शाह की.

बने खूब ताजमहल
राजसी अहं के
अंतहीन रात सघन
ठाठ हुए तम के
अर्थहीन दीप शब्द
भाषाएँ सलाह की.

शब्द आज बन बैठा
अर्थ का दरबारी
आत्मबोध करता क्यों
स्वयं से किनारी?
सत्य को जरुरत सच
आ पड़ी पनाह की?

बेशक हो सर्द हवा
देह जले फूलों की
इच्छाएँ जाहिर हों
रेत के बगूलों की
फिर भी न बीज चुनें
राह आत्मदाह की.

स्लेट लिखे शब्दों को





गुमसुम क्यों बैठे हो
मन कोरी लाग लिए,
बाँसों के वन गाते
अंतर में आग लिए.

अंतर में आग, चपल 
दृष्टि हो काग- सी
जिन्दगी रहे न महज
सागर के झाग- सी 
संयम हो बंध नहीं
दामन में दाग लिए.

मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ऋतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना
नदियाँ भी राह तकें
मधुर- मधुर राग लिए.

उतनी ही सृष्टि नहीं
जितनी हम सोच रहे
स्लेट लिखे शब्दों को
पोते से पोंछ रहे
हल करते जीन, ऋण,
जोड़, गुणा, भाग लिए.



Wednesday 19 December 2012

एक नपुंसक चुप्पी


 
किस से शिकायत गूंगा,
बहरा और अपाहिज काजी.

हमने अपने छोटे- छोटे
खेतों धूप-चाँदनी बोई
जरा नजर चूकी, अधकचरी
फसलें काट ले गया कोई
शंकित नजरों के उत्तर अब
शब्द चीखते वाजी! वाजी!

कुछ रोटी, कुछ सुविधा के भ्रम
उजलों ने राशन पर बाँटे
सरेआम ठेकेदारों ने
प्रजातंत्र को मारे चाँटे
एक नपुंसक चुप्पी कहती
मियाँ और बीबी हैं राजी.


- शशिकांत गीते

Tuesday 18 December 2012

भैंस सुनती बाँसुरी





बुर्ज ऊपर,
बहुत ऊपर
और चढ़ना भी जरूरी.

सीढ़ियाँ मलबा,
बगल
घाटी पड़ी
रस्सियाँ
टूटी हुई
मुश्किल बड़ी
लौह से संकल्प पल- पल
हो रही बट्टी कपूरी.

कौन खोजे हल,
छिड़ीं हैं
गर्म बहसें
भैंस सुनती
बाँसुरी
रोयें? हँसें?
कुछ अपाहिज जन्म से
कर रहे बातें खजूरी.

- शशिकात गीते

दिन हुआ बूढ़ा हलाकू





हो गया है
इन दिनों क्यों
बेवज़ह मौसम लड़ाकू.

हो चली है
ख़त्म सारी
मान्यताएँ सुबह की
चल पड़ी हैं आँधियाँ
सर्द औ
गूँगी ज़िबह की
सड़क पर दौड़ता
पागल समय
ले हाथ में चाकू.

ढल गई है
दोपहर
अपनी छिपाए प्रौढ़ता
सूर्य
ठंडी धूप का
आँचल नहीं है छोड़ता
साँझ के चिन्ह
चेहरे पर
दिन हुआ बूढ़ा हलाकू.

- शशिकांत गीते