Thursday 20 December 2012

बचपन के दिन





बचपन के दिन
और गाँव के
जाते नहीं भुलाए.

सरना काका की दुकान के
पेड़े, सेंव, जलेबी गुड़ की
बाड़ी वाले पीरू चाचा
बेर बीन देती वह बड़की
वह नरेन्द्र, वह भागचंद
चंचल सरोज और संध्य़ा निर्मल
गुल्ली- डंडा, गड़ा- गेंद की
अब तो मीठी यादें केवल
कांक्रीटों के जंगल के यह
केवल बहुत सताए.

छकड़े में या पैदल- पैदल
रेवा-तट बड़केश्वर जाना
माँ की उँगली पकड़ नहाना
रेती में कुदड़ाना, खाना
नीम तले खटरा मोटर का
युगों-युगों-सा रस्ता तकना
और निराशा की झाड़ी में
मीठे बेर यक-ब-यक पकना
खुशियों का यह
चरम लौटकर
फिर आए न आए.

3 comments:

  1. यादों की बस्ती आबाद करता बहुत मोहक नवगीत .....
    सादर ....ज्योत्स्ना शर्मा

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  2. हार्दिक धन्यवाद, ज्योत्सना शर्मा जी. अपने अमूल्य विचारों से अवगत रखें.

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  3. बहुत खूब... बचपन की सहज चेष्टाओं और गाँव के सहज दृश्यों का मनभावन चित्रण

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