Saturday 22 December 2012

लोक अपना






आग पानी में
लगाने का इरादा
क्या हुआ.

वे तने मुठ्ठी कसे थे
हाथ सारे
तालियों तब्दील कैसे हो गए
जलती मशालों से उछलते
हौंसले भी
राजपथ की रोशनी में खो गए
और रोशनदान से
गुपचुप अंधेरा
है चुआ.

चट्टान- से संकल्प कल्पित
बर्फ वाले ढेंकुले- से
हैं अचानक गल बहे
और शिखरों पार से आती
हवाओं के भरोसे
ध्वज बिना फहरे रहे
लोक अपना
स्वप्न बनकर
रह गया फिर अनछुआ.


10 comments:

  1. यह नवगीत बहुत पसंद आया। आपके सभी नवगीत पढ़ लिए हैं।लेकिन बार बार पढ़ने आऊँगी। उत्कृष्ट लेखन के लिए हार्दिक बधाई...

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    1. हार्दिक धन्यवाद कल्पना जी, आपका सदैव स्वागत है.

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  2. बहुत सुन्दर नवगीत है आपका शशिकांत जी। बधाई। आपका यह ब्लॉग जगत में प्रवेश सुखद लगता है।

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    1. आ. सुभाष नीरव जी, आपने मेरे निमंत्रण को स्वीकार किया और नवगीत के संदर्भ मे अपनी अमूल्य टिप्पणी भी दी. हार्दिक धन्यवाद. स्नेह बनाए रखें.

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  3. सुन्दर नवगीत ...आपकी रचनाएँ सरल शब्दों में गहन दर्शन ...शाश्वत सत्य कहती हैं ...यह भी उनमें से एक है ....बहुत बधाई आपको ..!!
    सादर ...ज्योत्स्ना शर्मा

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    1. ज्योत्सना शर्मा जी, उपरोक्त नवगीत के माध्यम से मेरे समस्त रचनाकर्म पर की गयी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक धन्यवाद. स्नेह बनाए रखें.

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  4. बहुत गहन बातें नवगीत के माध्यम से, सुंदरता से अभिव्यक्‍त। ब्लॉग जगत में आपका स्वागत शशिकांत जी।

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    1. अपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक धन्यवाद, सुशीला जी. स्नेह बनाए रखें.

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    1. अपकी सुंदर हार्दिक प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक धन्यवाद, अर्चना जी. स्नेह बनाए रखें.

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