ईसा के हाथ कटे
शोहरत है शाह की.
बने खूब ताजमहल
राजसी अहं के
अंतहीन रात सघन
ठाठ हुए तम के
अर्थहीन दीप शब्द
भाषाएँ सलाह की.
शब्द आज बन बैठा
अर्थ का दरबारी
आत्मबोध करता क्यों
स्वयं से किनारी?
सत्य को जरुरत सच
आ पड़ी पनाह की?
बेशक हो सर्द हवा
देह जले फूलों की
इच्छाएँ जाहिर हों
रेत के बगूलों की
फिर भी न बीज चुनें
राह आत्मदाह की.
बहुत खूब ...बधाई ...
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, आ. रमा जी. स्नेह बनाए रखें.
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